Thursday 1 November 2012

हिंदी दिवस - एक सोच


हिंदी उन सब गुणों से अलंकृत है ,जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओँ की अगली श्रेणी में आसीन हो सकती है ......................................................................मैथिली शरण गुप्त


पर इसके बावजूद हिंदी भाषा की स्वीकृति हिंदुस्तान में ही कम होती जा रही है. ये भी एक कड़वा सच है. हमें हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई मुहीम चलानी चाहिए. लोगों के अन्दर भाषा की गरिमा के लिए एक सम्मान जगाने की ज़रुरत है . पर उसके लिए ये नहीं कहना है की बाकी भाषा पढना छोड़ दो या कॉन्वेंट  स्कूल जाना छोड़ दो. किसी और भाषा की उपस्थिति आपकी भाषा के लिए खतरा नहीं बन सकती. जितने भी लोग ऐसा कहते हैं, वो खुद अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूल में पढाना चाहते हैं.

अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सफलता के लिए विभिन्न भाषा का ज्ञान और खास कर के अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आजकल ज़रूरी हो गया है - इससे इनकार नहीं किया जा सकता. अच्छा हो की इस सच्चाई को समझते हुए, हम अपनी भाषा के लिए लोगों के अन्दर आदर और गरिमा जगाये . इसके लिए मीडिया की मदद से हम जगह- जगह और खास कर स्कूलों और कॉलेजों में सेमिनार करें , मुझे याद है १९८०-९०s में दिल्ली के प्रगति मैदान में हिंदुस्तान के नौजवानों में शास्त्रीय संगीत की महत्ता को जगाने के लिए रोज सुबह शास्त्रीय संगीत की बैठक हुआ करती थी जहाँ शास्त्रीय संगीत के जाने-माने संगीतज्ञ आकर गायन करते थे और उसकी महत्ता को बताते थे .

कुछ उसी तरह की बात हिंदी भाषा के प्रचार- प्रसार के लिए की जा सकती है . किसी भी चीज़ को सकारात्मक ढंग से कहा जाए तो  उसका असर होता है, मैं निजी तौर पर किसी भी तरह के नकारात्मक और आक्रामक प्रचार के खिलाफ हूँ. किसी भी चीज़ को हम किसी भी तरह से किसी से ज़बरदस्ती नहीं करा सकते.  हमारे हिंदी लेखक और कवि इस क्षेत्र में मह्तवपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. किसी को भी ये कहना की वो अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूल न भेजे, गलत हैं क्योंकि जो कहते हैं , उन सबके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं , तो फिर  दूसरे  को ही भाषा- प्रेमी होने की शिक्षा क्यों ? Preach what you practice ...बस, हम अगर अपने साहित्य के प्रति ही  लोगों में जागरूकता पैदा करें, सम्मान पैदा करें  तो यही भारत के लोगों के लिए काफी होगा.

सकारत्मक प्रयास ही सफलता की कुंजी है . लेकिन ये मीडिया के सहयोग के बिना संभव नहीं है. हमारे television पर हिंदी साहित्य को लेकर वार्तालाप हो. बोलने वाले लोग हमारे दिग्गज और जाने-पहचाने चेहरे हो और साथ  में नए अच्छे लिखने वाले लेखकों, लेखिकाओं  और कविओं  का परिचय कराया जाये . उनके कार्य के बारे में लोगों को बताया जाये, तो मुझे विश्वास है की ऐसा करने से लोगों में हिंदी साहित्य को ले कर रूचि ज़रूर पैदा होगी . मैं खुद अमृता प्रीतम , शिवानी , उपेन्द्रनाथ अश्क, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय', शरतचंद्र, रविंद्रनाथ टैगोरे, आशापूर्णा देवी, कृशन चन्दर. मन्नू भंडारी , राजेंद्र अवस्थी, ममता कालिया , मालती जोशी , धर्मवीर भारती , मृणाल पाण्डेय , कन्हैयालाल नन्दन, के.पी. सक्सेना, हरिवंस राय बच्चन  और न जाने ऐसे कितने नामी गिरामी कवियों और लेखकों को पढ़ते हुए बड़ी हुई. हमारे अन्दर इन्हें पढने की इच्छा मेरी माँ ने जगाई.

मैं समझती  हूँ हम अपने बच्चों में अपनी भाषा के लिए वो आदर नहीं पैदा कर  पाते. हम अगर उन्हें बताये की हिंदी साहित्य और भाषा का हमारे जीवन में  क्या स्थान है, तो आधी लड़ाई तो हम वहां से ही जीत सकते हैं. अपने बच्चों का अंग्रेजी ज्ञान हमें भी अच्छा लगता है ,पर दूसरे के बच्चों को हिंदी ही पढना चाहिए , ऐसी इच्छा रखना गलत होगा . समय की सच्चाई को समझते हुए हिंदी साहित्य और भाषा के प्रति जागरूकता जगाना ही हमारा धर्म होना चाहिए.

आज से नहीं, अंग्रेजी शासन काल से ही हमारे नौजवान अंग्रेजी भाषा और पश्चिम सभ्यता के प्रति आकर्षित रहे हैं, इस सच को झूठ्लाया नहीं जा सकता और उसकी वजह से ही हिंदुस्तान को बहुत सारी गलत मान्यताओं से बाहर निकला जा सका है. ज्ञान का दरवाजा न बंद करें, चाहे वो किसी भी भाषा से आ रही हो, अपनी भाषा के लिए हमारे अन्दर खुद सम्मान पैदा करने की ज़रुरत है, गर्व महसूस करने की ज़रुरत है. हिंदुस्तान खुद ही विभाजित है, हमारा देश एक बहुभाषीय देश है , वहां हिंदी भाषा को बाहर से नहीं अन्दर से हो खतरा है..ऐसे मैं अंग्रेजी को इसका दुश्मन समझना गलत होगा.